हम आज उस समाज में जी रहे हैं जहां किसी पर भरोसा करना आसान नहीं है। कब कौन आपका अपना हितैषी आपके साथ छल कर जाए आपको इसकी अनुभूति भी नहीं होती। आप जिसे अपना कह रहे हैं वह आपका अपना कब तक रहेगा यह भी निश्चित नहीं है। मित्र,साथी,प्यार,परिवार सब एक दूसरे से जुड़े हैं एक दूसरे के लिए लेकिन यह एक दूसरे के हैं यह बात कहना अनुचित ही होगा।
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी किसी व्यक्ति,वस्तु से जुड़ा है वह सिर्फ अपना आमिष देखता है और जिस दिन उस व्यक्ति/वस्तु से उसका आमिष पूर्ण हो जाता है वह त्वरित रूप से उसका अवध्वंस कर देता है और हम इस अवध्वंस को अनैतिक बताने लगते हैं और उस व्यक्ति की करनी पर सवाल खड़ा करते हैं। जो हमें भी उस व्यक्ति की भांति आमिष लोभी बनाता है और यह समझाने का प्रयास करता है वास्तव में हमें सत्य स्वीकारना आना चाहिए। क्योंकि जिसनें हमारा अवध्वंस किया उसका आमिष पूर्ण हुआ और हम अभी भी उसका अवध्वंस नहीं करना चाहते यानी अभी उससे जुड़े हमारे आमिष की पूर्ति होना बाकी है।
आमिष और अवध्वंस की यह प्रक्रिया निरंतर हमारे आस-पास चलती है। हम स्वतः ही इसके अभिलाषी हैं लेकिन उसे अंगीकार करने का सत्त्व मानों हमारे भीतर है ही नहीं। हम निरंतर निस्वार्थ रिश्तों का ढोल पीटते रहते हैं। हर किसी को यह बताते हैं कि हमारे बीच के संबन्ध में आमिष का कोई स्थान नहीं है। इसलिए हम एक दूसरे का अवध्वंस नहीं कर सकते। लेकिन सत्य तो यही के कि जुड़ाव स्वार्थ ही है।
जो व्यक्ति ईश्वर की आराधना भी आमिष की अभिलाषा से करता है, अपने आमिष की पूर्ति हेतु ईश्वर से उसकी आराधना करने,उसके लिए दान पुण्य करने, उसके दर्शन करने और न जानें कितने प्रकार के अन्य वादे करता है। उस व्यक्ति कि इस बात को सत्य कैसे माना जाए कि वह मनुष्य के साथ निस्वार्थ जुड़ा है. उसके साथ उसका रिश्ता आमिष मुक्त है वह उसका कभी अवध्वंस नहीं करेगा।
वास्तव में मनुष्य और ईश्वर के बीच का जुड़ाव भी आमिष के कारण है और जो मनुष्य परमात्मा की पूजा आमिष के उद्देश्य से करता है उससे निस्वार्थ भाव की कोई अभिलाषा नहीं की जा सकती। हाँ यदि कलियुग में कोई वास्तव में आपके सम्मुख ऐसा है जो आमिष मुक्त है तुम्हारी अच्छाई-बुराई,लाभ-हानि से नहीं अपितु तुम्हारे साथ से प्रसन्नता है। तो उसे संजो कर रखें, उसके प्रति सत्य, समर्पण और साधना दिखाएं। उसके अवध्वंस से भयभीत हों क्योंकि कलियुग में किसी ऐसे का जीवन में होना ईश्वर का साक्षात तुम्हारे साथ होना होता है। जो तुम्हें सदैव सत्य सिखाता है और जब तुम कुछ अनैतिक करते हो तो उसे स्वीकारने का सामर्थ देता है।